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नहीं खायें तो वो परमात्मा मारकर भी खिलाता है ! देखें कैसे पुजारी की बात हुई सच साबित और सेठ बन गया संत मलूकदास

पूज्य बापू जी की प्रेरणादायी वाणी –

मलूकचंद नाम के एक सेठ थे। उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था। एक रात्रि को पुजारी जी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी। सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि “यह सब क्या है ?”

पुजारी जी बोलेः “एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था।”
“अरे ! क्या जागरण कीर्तन करते हो ? हमारी नींद हराम कर दी। अच्छी नींद के बाद ही व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।”
पुजारी जी ने कहाः “मलूक जी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।”

*“क्या भगवान खिलाता है ! हम कमाते हैं तब खाते हैं।”*

“निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सबको खिलाने वाला, सबका पालनहार तो वह जगन्नियंता ही है।”मेरे प्रभु?

?सेठ बोला “क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो। क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है ?”

सेठ : “सभी को वही खिलाता है।”
“हम नहीं खाते उसका दिया।”

*पुजारी बोला आप “नहीं खाओ तो भगवान मारकर भी खिलाता है।”*

सेठ बोला – “पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में खिला पाया तो ठीक है नही तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा।”

*पुजारी बोला* “मैं जानता हूँ सेठ जी तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन ईश्वर के हाथ बड़े लम्बे हैं। जब तक वह नहीं चाहता तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। आजमाकर देख लेना।”

मलूकचंद किसी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़कर बैठ गये कि ʹअब देखें इधर कौन खिलाने आता है !ʹ
दो-तीन घंटे बाद एक अजनबी आदमी वहाँ आया। उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन एक थैला वहीं भूल गया। थोड़ी देर बार पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहाः ” उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है।”
“क्या है जरा देखो।”

खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा डिब्बा ! उन्होंने सोचा कि उन्हें पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह डिब्बा यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा। उन्होंने इधर-उधर देखा लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा। तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायीः “कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है ?”
मलूकचंद सोचने लगे कि ʹअगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।ʹ
वे तो चुप रहे लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत कैसे रहता !?

उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि ऊपर भी देखो। उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा। डकैत चिल्लायेः “अरे ! नीचे उतर !”

“मैं नहीं उतरता।”
“क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।”
“मैंने नहीं रखा। कोई यात्री आया था, वही इसे भूलकर चला गया।”
“नीचे उतर ! तूने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है। तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा।” अब कौन सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा, किस निमित्त से करवाये या उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है। बड़ी गजब की व्यवस्था है उसकी !

*मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा।”*

“पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अब तो तुझे खाना ही होगा !”
“मैं नहीं खाऊँगा, नीचे भी नहीं उतरूँगा।”
“अरे, कैसे नहीं उतरेगा !”

डकैतों के सरदार ने हुक्म दियाः “इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।”
मलूकचंद को पकड़कर नीचे उतारा गया। “ले खाना खा।”
“मैं नहीं खाऊँगा।”

*उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया। मलूकचंद को पुजारी जी की बात याद आयी कि ʹनहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा।ʹ*

मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं खाऊँगा।” वहीं डंडी पड़ी थी। डकैतों ने उससे उनकी नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे। वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
अब मलूकचंद ने सोचा कि ʹये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।ʹ इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन-ही-मन कहाः ʹमान गये मेरे बाप ! मारकर भी खिलाता है ! डकैतों के रूप में आकर खिला चाहे भक्तों के रूप में लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।ʹ वे सोचने लगे, ʹजिसने मुझे मारकर भी खिलाया, अब उस सर्वसमर्थ की ही मैं खोज करूँगा।ʹ

वे उस खिलाने वाले की खोज में घने जंगल में चले गये। वहाँ वे भगवदभजन में लग गये। लग गये तो ऐसे लगे कि मलूकचंद में से संत मलूकदास प्रकट हो गये।

*??वह महान संत मलूकदास बन गए*

वे 108 वर्ष की उम्र तक जिये। संवत 1739 में जब वे संसार से जा रहे थे तो उन्होंने भक्तों से कहा कि “भगवान जगन्नाथ को स्नान कराने पर पनाली में से जहाँ जल नीचे गिरता है, वहाँ मेरी समाधि बनाना और जगन्नाथजी को भोग लगाने के लिए रोटी बनाने हेतु जो आटा गूँथा जाता है, उसमें से बचे हुए आटे का एक मोटा रोट बनाकर इस दास को भोग लगा देना।”

भक्तों की हिम्मत नहीं हुई कि जगन्नाथपुरी में ऐसी व्यवस्था करवा दें, इसलिए उन्होंने एक बक्से में महाराज का शरीर रखकर दरिया में जलदेवता को अर्पण कर दिया। परंतु वह बक्सा तैरता हुआ किनारे आ गया और किसी को प्रेरणा हुई व जैसा मलूकदास जी चाहते थे वैसी ही व्यवस्था हो गयी। आज मलूकदासजी की समाधि भगवान जगन्नाथ के मंदिर के दक्षिण द्वार पर स्थित है और भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के लिए जो आटा गूँथा जाता है उसमें से बचे हुए आटे का रोट बनता है और उसी का मलूकदास जी को भोग लगाया जाता है।

*जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है। वह अगर उस परमात्मा का आश्रय लेकर कुछ ठान लेता है तो प्रकृति उसकी अवश्य मदद करती है। उसे पूरा किये बिना नहीं रहती, फिर चाहे निमित्त किसे भी बनाये।*