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दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा जालंधर में साधना शिविर का आयोजन, भक्तों ने ध्यान की गहराईयों में लिया ईश्वरीय आंनद

 

जालंधर( अमन बग्गा)दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा अमृतसर रोड बिधीपुर आश्रम जालंधर में साधना शिविर का आयोजन किया गया । जिसमें सर्व श्री आशुतोषमहाराज जी के शिष्य योगाचार्य स्वामी मोहनपुरी जी ने अपने प्रवचनों में बताया कि साधना क्या है भाव उस सनातन पुरातन ज्ञान पद्धित द्वारा अपने मन और शरीर को साधना और ये केवल और केवल अध्यात्म द्वारा ही संभव है ।शास्त्र ग्रंथेां में स्पष्ट द्वप में लिखा गया है कि अध्यात्म की शुरूआत प्रकाश से ज्योति के दर्शन से होती है । और प्रकाश को ही ध्यान की उच्चत्म पद्दति कहा गया है । लेकिन ये ज्योति प्रकाश है आप देखें के बाहरी जगत में दिन में सूर्य प्रकाश देता है । रात को शीतल चंद्रमा ,चांदनी ,वैज्ञानिक उन्नति के चलते तो कइज् प्रकार के की खोजें जैसे कि विद्युत ,सोलर न्यूकलियर ,आदि प्रकाश देती है । ये सभी बाहरी जगत तक प्रकाश देती है लेकिन अंत: करण को प्रकाशित करने में सामर्थवान नही है । भगवान कृष्ण इसको समझाते हुए कहते है कि जहाँ सुर्य ,चंद्रमा , अगिन ,वाणी का प्रकाश नही पहुच सकता वहाँ उस आत्मा को अंर्तजगत का प्रकाश प्रकाशित कर सकता है । यह प्रकाश हर प्राणी के भीतर आत्मा के रूप में विद्यमान है ।यही प्रकाश ब्रह्यज्योति है ।परमात्मा का निराकार रूप है ।कहा भी गया है सहज प्रकाश रूप भगवाना । अब प्रश ये है कि आंखें बंद करते ही हमें अंधकार दिखाई पडता है ।फिर प्रभु का आलौकिक प्रकाश कैसे दिखे । इस प्रकाश रूप प्रमात्मा के दर्शन संभव है ।पर वे इ्रद्रियों द्वारा नही जाना जा सकता उसके लिए दशम द्वार में ध्यान लगाने की युक्ति चाहिए और वे युक्ति हमें कैसे मिले ।जिस प्रकार वनों की लकडी में आग होती है । परन्तु गुप्त है । उसी प्रकार प्रमात्मा की ज्योति भी कण -कण में समाई है लेकिन गुप्त है ।जरूरत है उस युक्ति की जिसके द्वारा हम अपने इभीतर उस ज्योति के दर्शन कर उस उच्चत्म ध्यान पद्धति को हालि कर सके और उस ज्ञान की अगिन से कर्म संस्कारों बंदन से मुक्ति हो सकें । ये युक्ति तो केवल और केवल ब्रह्यज्ञान है ।परमात्मा केवल ब्रह्यज्ञान द्वारा ही जाना जा सकता है और ये ब्रह्यज्ञान केवल ब्रह्यनिष्ठ गुरू ही दे सकते है । ब्रह्यज्ञान द्वारा हम अपने भीतर ब्रह्य के दर्शन ऐसे करते है जेसे धुप और छाँव कोई अलग अलग देख सकता है ।सैंकडे चन्द्रमा और हजारों सूर्याे जितना प्रकाश हमारे घट में है । परन्तु पूर्ण गुरू के बिना हमारे भीतर अंधकार ही रहेगा । और ज्ञान दिक्षा के बाद हम प्रकाश में निरंतर ध्यान लगा सकते है और यही योग की भी पुरातन और सनातन विधी है ।